आदर्श राजा, आदर्श शासनव्यवस्था, आदर्श शासकीय अधिकारी, आदर्श लष्करी व्यवस्था, आदर्श धर्माचार्य, आदर्श भक्तिमार्ग, आदर्श शिक्षापद्धती, आदर्श आचार्य, आदर्श व्यापार और आदर्श प्रजा यानी ‘रामराज्य’ और ऐसा रामराज्य अयोध्या के बाद भारतीय इतिहास ने फिर एक बार देखा, महाविष्णु के नि:सीम भक्त रहनेवाले समुद्रगुप्त, दत्तदेवी और धर्मपाल के कालखंड में ही।
समुद्रगुप्त के बाद वर्ष ३८० में दत्तदेवी के पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय शासन करने लगे और इन्होंने भी इनके माता-पिता के आदर्शों के अनुसार ही शासन किया। इन्होंने ‘विक्रमादित्य’ यह नामाभिधान धारण किया और इन्हीं विक्रमादित्य के नाम से विक्रमसंवत् आरंभ हुआ। इनके पश्चात् इनके पुत्र कुमारगुप्त के संपूर्ण कार्यकाल में भी संपूर्ण समाजव्यवस्था और शासनव्यवस्था इसी तरह चलती रही। परन्तु इनके कार्यकाल के बाद भारत में फिर एक बार दुर्भाग्य की आँधी चलने लगी। धीरे धीरे साम्राज्य के टुकड़े होते गये और फिर एक बार कई छोटे छोटे स्वतंत्र राज्य उत्पन्न होकर वे राज्य भोगवादी एवं आचारहीन राजाओं के कब्ज़े में चले गये। धर्मप्रवृत्त एवं नीतिमान शासन का अंकुश न रहने के कारण फिर एक बार धार्मिक पंथों में वितुष्ट बढ़ने लगा, साथ ही नकली धर्ममार्तंडों को मौका मिल गया। स्वर्ण युग में रहनेवाला केवल भौतिक स्वर्ण उस वक्त भी भारतीय राज्यों में विपुल मात्रा में था और फिर अति दुर्बल हुए इन धनिक राज्यों की ओर देखने की विदेशी आक्रमकों की दृष्टि बदल गयी। इन असमर्थ वैभवसंपन्न प्रदेशों को लूटने का रास्ता उनके लिए खुल गया।
(समुद्रगुप्त प्रकरण समाप्त)
सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष
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