‘श्रद्धावान’ इस संकल्पना को विशद करते हुए सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी ‘दैनिक प्रत्यक्ष’ में प्रकाशित ‘तुलसीपत्र’ अग्रलेख क्र. १५९७ में लिखते हैं -

श्रद्धावान’ इस शब्द का उच्चारण भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं गीता में पहले चतुर्थ (४) अध्याय में, बाद में छठें (६) और अठारहवें (१८) अध्याय में यानी तीन बार किया है और इसी लिए

‘भक्त’ का अर्थ है ‘जो भक्ति करता है वह’ और ‘जो भक्तिभाव चैतन्य में रहता है वह वास्तविक (सच्चा) भक्त है’ यानी ‘श्रद्धावान’ है,

इसे मत भूलना।

श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥

- श्रीमद्भगवद्गीता ४/३९

अर्थ - भगवान के साथ एकनिष्ठ रहकर भक्ति में तत्पर रहने वाला, भक्ति के द्वारा इन्द्रियों को संयमित रखने वाला श्रद्धावान ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान प्राप्त करके वह तत्काल भगवत्-प्राप्तिरूपी श्रेष्ठ शान्ति प्राप्त करता है।

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।

श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:॥

- श्रीमद्भगवद्गीता ६/४७

अर्थ - कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग, योगमार्ग आदि मार्गों पर के सभी साधकों में जो श्रद्धावान अपनी अन्तरात्मा से मेरी अनन्यभक्ति करता है, वह सर्वश्रेष्ठ है ऐसा मैं मानता हूँ, क्योंकि वह मुझसे अखंड एवं संपूर्ण जुड़ा होता है।

श्रद्धावान् अनसूयश्‍च शृणुयादपि यो नर:।

सोऽपि मुक्त: शुभान् लोकान् प्राप्नुयात् पुण्यकर्मणाम् ॥

- श्रीमद्भगवद्गीता १८/७१

अर्थ - किसी के भी प्रति असूया न रखनेवाला जो श्रद्धावान मानव इस श्रीमद्भगवद्गीता का श्रवण करेगा, वह भी सारे पाशों से मुक्त होकर पुण्यकर्म करने वालों के शुभ लोकों में जायेगा।

सर्वसामान्य मानव, भक्त, श्रद्धावान एवं सच्चा श्रद्धावान ये भक्तिमार्ग के प्रवास के विभिन्न पड़ाव

सर्वसामान्य मानव

उपभोगों के लिए (उपभोग प्राप्त करने के लिए) भक्ति करना और भगवान को भूखा रखना और अपना काम निकल जाते ही उसे भूल भी जाना और ज़रूरत पडने पर भगवान को याद करना।

भक्त

जो भक्ति करता है, वह भक्त है। भक्तिमार्ग में भक्त केवल उसके पास जितनी और जैसी श्रद्धा है, उस श्रद्धा से आरंभ करता  है। क्षमता के अनुसार अपने इष्टदैवत की भक्ति करता रहता है और अहम बात यह है कि वह सदैव भगवान के प्रति कृतज्ञ रहता है और ‘हे भगवान, तुम ही मेरे जीवन के सूत्रधार हो’ ऐसा भगवान से बार बार कहते हुए भजन, पूजन, मंत्रजाप, नाम का जाप करते रहता है।

भक्तिमार्ग में वह भक्त ‘मैं अल्प हूँ, मैं सीदा-सादा हूँ; परन्तु मेरा भगवान अनंत है और अपरंपार सामर्थ्य से युक्त है और मेरा भगवान प्रेम से मोहित हो जाता है’ इस एहसास को मन में अधिक से अधिक दृढ करते हुए जीवन की हर एक बात का स्वागत करता है।

ऐसे भक्त का ध्येय एक ही होता है - मुझे मेरे भगवान का दास और सखा बनना है और उसकी बहुत सेवा करनी है और उसकी शरण में जाकर जीवन व्यतीत करना है।

श्रद्धावान

जब भक्त के मन में दास्य, सख्य और शरणागति इन भावनाओं का बीच बीच में ही सही, लेकिन उच्चारण होने लगता है, तब तब स्वयंभगवान स्वयं उस भक्तिमार्गी को तेज़ी से आगे ले जाता है और उसके द्वारा की गयी अल्प-स्वल्प सेवा को दस गुना बनाकर स्वीकार करता रहता है और बड़ी ही कोमलता से भक्तिमार्गीय को श्रद्धावान बनाकर अर्थात् स्वयं का सखा बनाकर भक्तिभाव चैतन्य में ले आता है। भक्तिभाव चैतन्य में रहता है वह सच्चा भक्त अर्थात् श्रद्धावान है।

भक्तिमार्ग में स्वयंभगवान, श्रद्धावान के जीवन में आदिमाता जगदंबा के आदेश के अनुसार कहीं भी और कभी भी हस्तक्षेप करता रहता है।

सच्चा श्रद्धावान

जो श्रद्धावान स्वयंभगवान की उसके साथ सदैव संलग्न रहनेवाली शक्ति अर्था्त्

दैवी प्रकृति अर्थात् स्वयंभगवान की प्रेमशक्ति का आश्रय करता है,

स्वयंभगवान के चरणों में शरणागत होता है,

स्वयंभगवान के चेहरे पर रहनेवाले स्मित (मुस्कुराहट) से प्रसन्न होता है और स्वयंभगवान की नज़र में रहनेवाले प्रेम का स्वीकार करता है,

वही सच्चा श्रद्धावान;

वही स्वयंभगवान का निरंतर दास और सखा बन सकता है।

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