श्री ललिताम्बिका पूजन

अनिरुद्ध भक्तिभाव चैतन्य ‣

सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापु का व्यस्त दिनक्रम तथा अपने श्रद्धावान मित्रों के लिए दिनरात निरन्तर चल रही उनकी कड़ी मेहनत देखें, तो निश्‍चित ही यक़ीन हो जाता है कि यह तो एक तपस्वी की दिनचर्या है। बापु का जीवन स्वयमेव तपस्या ही है।बापु हम श्रद्धावानों के हित के लिए हमेशा जागरुक ही रहते हैं और उसी हेतु हम श्रद्धावानों के लिए निरपेक्ष प्रेम के साथ चल रही उनकी मेहनत को देखते हुए, उनका जीवन ही एक तपस्या है, यह भाव मन में उमड़ आता है।

स्वस्तिक्षेम तपश्‍चर्या :

अपनी श्रद्धावान संतानों का आध्यात्मिक आधार मज़बूत हो, हमें आध्यात्मिक कवच प्राप्त हो, इसलिए सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध ने सन 2011 की आश्‍विन नवरात्रि के आरंभ से यानी 28 सितम्बर 2011 से स्वस्तिक्षेम तपश्‍चर्या की शुरुआत की।बापु की इस तपस्या के फलस्वरूप, बापु ने हमें ‘मातृवात्सल उपनिषद्’ दिया, यानी ‘श्रीस्वस्तिक्षेमविद्या’ दी और उस विद्या का प्रात्यक्षिक रहनेवाला ‘स्वस्तिक्षेम संवाद’ भी हमें दिया।सप्तप्रदेशों में स्थित अठारह मंगलस्थानों से होकर, स्वयंभगवान श्रीत्रिविक्रम समेत मणिद्वीपनिवासिनी अष्टादशभुजा जगदंबा ललिता के दरबार तक किये गये अद्भुत भक्तिमय प्रवास का वर्णन मातृवात्सल उपनिषद् में बापु ने किया है। जगदंबा ललिता की वत्सलता, उसकी क्षमा और उसके निरपेक्ष प्रेम का अनुभव तो हम इस ग्रंथ द्वारा करते ही हैं। साथ ही, माँ जगदंबा का हर एक शस्त्र श्रद्धावानों के जीवन में कैसे कार्य करता है, इसका भी अनुभव  इस ग्रंथ के वाचन के माध्यम से हमें हो जाता है।

श्रीललिताम्बिका पूजन :

सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध की तपस्या में से और संकल्प में से हमें प्राप्त हुआ एक बहुत ही सुन्दर वरदान यानी श्रीललिताम्बिका पूजन।बापु की स्वस्तिक्षेम तपस्या का ङ्गलित है - सर्वांग-ब्रह्मास्त्र और सर्वांग-करुणाश्रय। तपस्या के ङ्गलस्वरूप प्राप्त होनेवाले इन दोनों फलों को बापु ने ‘श्रीअनिरुद्धगुरुक्षेत्रम्’ में अर्पण किया।विश्‍व में दो प्रकार की शक्तियाँ होती हैं - जीवनविघातक और जीवनसंवर्धक। सर्वांग- ब्रह्मास्त्र यह अनुचित का नाश करनेवाला है; वहीं, सर्वांग-करुणाश्रय का कार्य है, विश्‍व में रहनेवालीं जीवनविघातक शक्तियों का नाश करके जीवनसंवर्धक शक्तियों को बढ़ाना।मूलतः कई बार मानव जीवनविघातक और जीवनसंवर्धक इन दो शक्तियों के बीच के फर्क़ को पहचान ही नहीं सकता, वह ग़लती कर बैठता है और फिर उसके साथ धोखा हो जाता है। लेकिन जो कोई सर्वांग- करुणाश्रय का आश्रय करता है, उसके जीवन में जीवनविघातक शक्तियों का प्रवेश ही नहीं हो सकता और जीवनसंवर्धक शक्तियों की ताकत सुव्यवस्थित रूप से बढ़ती रहती है।हम श्रद्धावानों के जीवन में ये दोनों बातें कार्यकारी रहें इसके लिए सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध ने उनके संकल्प के अनुसार श्रीललिताम्बिका पूजन का सर्वांगसुन्दर मार्ग हमारे लिए खुला कर दिया।तुलसीपत्र 1400 में बापु ने बताया है कि आदिमाता का ‘मणिद्वीपनिवासिनी’ यह मूल स्वरूप अर्थात् ‘सिंहासनस्थ अष्टादशभुजा महिषासुरमर्दिनी’ रूप ही ‘ललिताम्बिका’ है।श्रीललिताम्बिका पूजन के दौरान मणिद्वीपनिवासिनी अष्टादशभुजा जगदंबा ललिता की मूर्ति का पूजन श्रद्धावान करते हैं। श्रीहरिगुरुग्राम में हर गुरुवार को मुख्य मंच पर माँ जगदंबा की जैसी बड़ी तस्वीर रहती है, वैसी ही तस्वीर श्रीललिताम्बिकापूजन कक्ष में विराजमान होकर, उसी की प्रतिकृति होनेवाली छोटी मूर्ति पूजक के सामने रहती है। पूजकों द्वारा हरिद्रा, कुंकुम, हरिद्रा-अक्षता, कुंकुम- अक्षता, बिल्वपत्र, सुगन्धित फूल आदि उपचार अर्पण करके उस मूर्ति का पूजन किया जाता है।

ललिताम्बिका :

विश्‍व की उत्पत्ति से पहले सर्वत्र केवल परब्रह्मतत्त्व यानी परमेश्‍वर दत्तगुरु का ही अस्तित्व था। दत्तगुरु की आद्यकामना के रूप में कामकला ललिता का प्रकटन हो जाते ही दो तत्त्व अस्तित्व में आये, यानी ‘एक’ से ‘दो’ तक का यह आद्य प्रवास हुआ।दत्तगुरु के ‘एकोऽस्मि बहुस्याम्’ इस आद्य स्फुरण में से यानी इच्छा में से यह विश्‍व उत्पन्न हुआ और उनके इस संकल्प के साथ ही वे परमेश्‍वर स्वयं ही ‘श्रीमन्नारायण’ अर्थात् ‘श्रीमहादुर्गेश्‍वर’ बन गये।लीलाधारी परमेश्‍वर स्वयं की लीला से ही इस विश्‍व की उत्पत्ति करते हैं, स्व-लीला से ही वे इस विश्‍व का संचालन करते हैं और अपनी लीला से ही वे इस विश्‍व को स्वयं में विलयित कर देते हैं।यह ललिता कामकला होने के कारण कलन (गणना) की शुरुआत हुई अर्थात् काल (समय) की गति की शुरुआत हुई, काल (समय) अस्तित्व में आ गया।‘समय की गति’ यह भी कामकला ललिता की कला ही है, क्योंकि उसी की वजह से काल (समय) को अस्तित्व तथा गति प्राप्त हुई। लेकिन काल (समय) से भी परे रहनेवाली कामकला ललिता की गति स्वयंभू, स्वयंपूर्ण है, क्योंकि वह स्वयं ही महाकामेश्‍वरी है।काम में से ही विश्‍व उत्पन्न हो जाता है, काम से ही विश्‍व का कारोबार चलते रहता है और काम में ही विश्‍व विलयित हो जाता है। लोकातीत रहने के बावजूद भी जगत् को और सभी जीवात्माओं को प्रेरणा देनेवाली, चलानेवाली, चलने के लिए प्रवृत्त करनेवाली कामकला ललिता ही है।

ललिताम्बिका कृपा से कामनापूर्ति :

चाहे हमारीं प्रापंचिक कामनाएँ हो या पारमार्थिक कामनाएँ हों, अर्थात् हमारी स्थावर-जंगम संपत्ति, पारिवारिक सुख, पुत्र-पौत्रसौख्य आदि कामनाएँ हों; या फिर भक्ति करना, भगवान के दर्शन होना, उसकी सेवा करना, उसका अखंड सामीप्य प्राप्त करना आदि कामनाएँ हो, ये सभी कामनाएँ पूरी होने के लिए ललिताम्बिका की कृपा होना आवश्यक है।इतना ही नहीं, बल्कि पारिवारिक, आर्थिक समस्याओं का, मुश्किलों का निवारण होने की कामनाएँ भी ललिताम्बिका की कृपा से पूरी होती हैं। शारीरिक, मानसिक बीमारियों से लेकर अहंकार तक, जीवन में कई प्रकार की बाधाओं का सामना करते हुए हम आम इन्सानों को जीवनप्रवास करना पड़ता है। इन बाधाओं का निवारण हुए बिना जीवन में सफलता, शान्ति, तृप्ति, सन्तोष, आनन्द नहीं तथा हर एक मानव के मन में रहनेवाली, समस्तबाधानिवारण होने की कामना भी ललिताम्बिका की कृपा से ही पूरी होती है।

षोडशी कामकला ललिताम्बिका :

जिस प्रकार चंद्रमा की सोलह कलाएँ (अमावस से लेकर पूर्णिमा तक) मानी जाती हैं, उस प्रकार कामकला की भी कुल सोलह (षोडश) कलाएँ मानी जाती हैं और इसी कारण इसे ‘षोडशी’ भी कहा जाता है।षोडशी कामकला की ये सोलह कलाएँ यानी इस संपूर्ण विश्‍व की नियामक शक्तियाँ। विश्‍व की सारी नियामक शक्तियाँ इस षोडशी कामकला की सोलह कलाओं में से ही उत्पन्न हुईं और इसीलिए विश्‍व के सारे नियमों की, नियामक शक्तियों की अधिष्ठात्री (बेसिस) षोडशी कामकला ललिता ही है।इससे हमारी समझ में आता है कि हमें हमारे लक्ष्य तक पहुँचने के लिए आवश्यक रहनेवाली हर एक शक्ति ललिताम्बिका से ही प्राप्त होती है। हमारे किसी भी कार्य में बाधा पैदा करनेवाली, मेरे जीवन में बाधाएँ उत्पन्न करनेवाली, मुझे परेशान करनेवाली कोई भी शक्ति कितनी भी ताकतवर क्यों न हों, लेकिन पूरे विश्‍व की नियामक शक्तियों की स्वामिनी होनेवाली ललिताम्बिका की शक्ति अनन्त है।उदाहरण के तौर पर, मुझे परेशान करनेवाले षड्-रिपु, दुष्प्रारब्ध आदि कुवृत्तिरूपी शक्तियाँ हों अथवा बाह्य शत्रु, अचानक आनेवालीं आपत्तियाँ इस प्रकार की शक्तियाँ हों; इन सारीं शक्तियों का खात्मा ललिताम्बिका की कृपा से होता है।‘कुकर्म-कुसंग-कुबुद्धि-कुदृष्टि-विनाशिनी’ इन शब्दों में आदिमाता जगदंबा ललिताम्बिका का वर्णन किया है, यह हम जानते ही हैं। ऐसी इस ललिताम्बिका की कृपा प्राप्त कर लेने के लिए, सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध ने हम श्रद्धावानों के लिए उपलब्ध करा दिया हुआ सहज और आसान साधन यानी श्रीललिताम्बिका पूजन।

अनाथनाथे अंबे करुणा विस्तारी :

तुलसीपत्र 1405 एवं 1406 में बापु, जगदंबा ललिता के स्वरूप के बारे में सविस्तार लिखते हैं, उसका सारांश है - ‘विश्‍व का तथा हर एक का प्रवास ललिता से शक्ति प्राप्त हुए बग़ैर हो ही नहीं सकता। स्थिति, गति तथा प्रगति इन सबके लिए ललिता की शक्ति ही कारणीभूत होती है।परमात्मा के आदेश के अनुसार ब्रह्माजी सृष्टिनिर्माण करने के लिए तपस्या आरंभ करते हैं। तपस्या की अवधि में ही ब्रह्माजी को सृजनशक्ति प्राप्त होने लगती है और फिर ब्रह्माजी के मन में विचार आता है कि यह शक्ति भला मुझे कहाँ से प्राप्त हुई? इस शक्ति का स्रोत (उद्गम) कहाँ पर है?ब्रह्माजी उस शक्ति के स्रोत की खोज करने निकल पड़ते हैं, लेकिन पूरा क्षीरसागर ढूँढ़ने के बाद भी उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता। आख़िरकार ढूँढ़-ढूँढ़कर थक जाने के बाद ब्रह्माजी रुक जाते हैं और उस शक्ति की शरण में जाने की कामना उनके मन में उत्पन्न होती है।‘जिसने मुझे जन्म दिया, जो मुझे शक्ति की आपूर्ति करती है, वह मेरी माता ही होगी’ ऐसा मातृरूप में उसे पूजनेवाले ब्रह्माजी मन ही मन उसे बुलाते हैं और उनकी गुहार के प्रतिसादस्वरूप उस निर्गुण निराकार कामकला जगदंबा का प्रथम साकार प्रकटन हुआ, वह ‘ललिता’ इस रूप में।ब्रह्मदेव उसके बाद प्रार्थना करते हैं - ‘हे माता, इससे पहले आपकी खोज करते हुए जब मैं थक गया और आपकी शरण में आया, तब मैं जहाँ था वहाँ आप प्रकट हुईं। आज आपका यह बालक मोहग्रस्तता के कारण आपसे दूर आया है और शक्तिहीन बनने के कारण मेरा आपके पास आना संभव नहीं है; लेकिन आप तो मेरे पास आ सकती हो, आपके लिए असंभव ऐसा कुछ भी नहीं है। इस कारण हे अंबा, आप ही अपनी करुणा का विस्तार करके, मैं जहाँ हूँ, वहाँ आ जाइए।’बापु कहते हैं कि यही इस विश्‍व की पहली प्रार्थना थी, यही प्रथम भक्ति-गुहार थी। मोह में से विस्मृति होती है, विस्मृति में से शक्तिहीनता आती है, शक्तिहीनता के कारण स्मरण हो जाता है, स्मरण से भक्ति हो जाती है, भक्ति के कारण श्रद्धा स्थिर हो जाती है और श्रद्धा ही मानव को उसका सामर्थ्य फिर से प्राप्त करा देती है, ऐश्‍वर्य प्राप्त करा देती है। लेकिन उसके लिए ब्रह्माजी जैसी माँ अंबा को - ‘अनाथनाथे अंबे करुणा विस्तारीं’ यह गुहार लगानी होगी। ब्रह्माजी ने भक्तिपूर्वक गुहार लगाते ही महाकामेश्‍वरी ललिता वहाँ फिर से प्रकट हुई।’ललिताम्बिका पूजन में - ‘दुर्गे दुर्घट भारी तुजविण संसारी, अनाथनाथे अंबे करुणा विस्तारीं’ यह आरती करते समय श्रद्धावान यही प्रार्थना जगदंबा के चरणों में करते हैं। हमारा सामर्थ्य, ऐश्‍वर्य प्राप्त करने के लिए हम पर ललिताम्बिका की कृपा होनी चाहिए, उसने विस्तार की हुई करुणा के प्रान्त में हमें रहना चाहिए। ललिताम्बिका पूजन करना, यह इसके लिए उपलब्ध साधनों में से एक महत्त्वपूर्ण साधन है।

भंडासुरहन्त्री ललितम्बिका :

तुलसीपत्र 1407 से भंडासुरवध का आख्यान बापु ने लिखा है। उसमें हम पढ़ते हैं कि भंडासुर ने शिवजी से वरदान प्राप्त किया कि इस विश्‍व में जो कोई मेरे सामने युद्ध करने खड़ा होगा, उसकी आधी शक्ति मुझे प्राप्त हों। शिवजी से यह वरदान प्राप्त किया हुआ भंडासुर मग़रूर और उद्दाम बनकर सर्वत्र ऊधम मचाने लगा।भंडासुर ने मचाये ऊधम से ऊब चुके मानव, ऋषिगण, देवगण उस समय ललिताम्बिका की तपस्या कर रहे कामदेव के पास गये। कामदेव जब ऋषिगणों को साथ लेकर मणिद्वीप में ललिता के समक्ष उपस्थित हुआ, तब ऋषियों ने अपनी व्यथा जगदंबा ललिता को कथन की। उसपर ललिताम्बिका उनकी व्यथा दूर करने के लिए प्रकट होकर, भंडासुर का वध करने का आश्‍वासन देती है।श्रीमाता ललिताम्बिका का यह आश्‍वासन सुनते ही आनंदित हो चुके मानवों को यह भी भान नहीं रहता कि ललिताम्बिका को ‘अंबज्ञ’ कहें। अपनी मुश्किल हल हुई इस खुशी में वे आदिमाता ललिता चण्डिका को भूल जाते हैं। ‘साक्षात् ललिताम्बिका अवतरित होनेवाली है, तो उसके लिए हमें भी कुछ तैयारी करनी चाहिए, हमें हमारी भक्ति बढ़ानी चाहिए, उसकी कुछ तो सहायता करनी चाहिए’ इस प्रकार का कोई भी विचार उनके मन में नहीं आता।यहाँ पर हमें यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बोध प्राप्त होता है कि अगर हम चाहते हैं कि हमारे जीवन में ललिताम्बिका का अवतरण हो, उसकी कृपा हमपर बनी रहें, तो इसके लिए हमें भी हमारी तैयारी करनी होगी। हम कुछ भी ना करें और उससे उम्मीद करें कि वह हमारी मुश्किलें हल करें, हमारी बाधाओं का निवारण करें, हमारी कामनाएँ पूरी करें, हमारे लिए दौड़ी चली आएँ, तो वह अनुचित है।‘मातृवात्सल्यविन्दानम्’, ‘मातृवात्सल्य उपनिषद्’ का पठन करना, उनमें वर्णित जगदंबा के स्तोत्रमन्त्रों का पठन करना, नवरात्रि में अंबज्ञ इष्टिका पूजन करना, इन बातों के साथ ही, सद्गुरु की तपस्या में से और संकल्प में से हमारे लिए साकार हुआ श्रीललिताम्बिका पूजन करना भी हमारे लिए आवश्यक ही है।

ललितासहस्रनाम:

ललिता ने भंडासुर का वध करने के बाद सभी ऋषिगण ‘अंबज्ञ’ कहते हुए भंडासुरहन्त्री जगदंबा ललिता की जयजयकार करते हैं। ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ललिताम्बिका को प्रणाम कर कहते हैं, ‘‘माता, आपका स्तवन करने के लिए मेरे पास स्तुतिपर स्तोत्र नहीं है; यदि कुछ है, तो वह है ‘ह्रीम्’ यह बीज तथा ‘ललिता’ यह नाम। अतः माता, आप ही हमें ऐसा कुछ सामर्थ्यसंपन्न स्तोत्र दीजिए, जिसका स्मरण करने से, जिसका अध्ययन करने से, जिसमें अवगाहन करने से साधारण से साधारण इन्सान भी आपसे आसानी से सामर्थ्य प्राप्त करके आपकी अधिक से अधिक भक्ति कर सकेगा; आपके पुत्रों के साथ एकनिष्ठ रह सकेगा।’’यह सुनने के बाद ललिताम्बिका के स्मितहास्य से जो शब्द उत्पन्न हुए, वे शब्द थे - ‘श्रीललितासहस्रनाम’। यह ललितासहस्रनाम प्रत्यक्ष ललिताम्बिका की हास्यकला में से प्रकट हुआ।ललिताम्बिका पूजन में ललितासहस्रनाम के पठन के दौरान श्रद्धावान ललिताम्बिका को बिल्वपत्र और सुगन्धित पुष्प अर्पण करते हैं। श्रीसूक्त में जगदंबा को प्रिय रहनेवाले बिल्ववृक्ष का उल्लेख आता है। ऐसे इस जगदंबा को प्रिय रहनेवाले बिल्ववृक्ष के पत्ते यानी बिल्वपत्र ललिताम्बिका पूजन में श्रद्धावान अर्पण करते हैं।

कुंकुमार्चन :

ललिताम्बिका के पूजन में श्रद्धावान ललिताम्बिका कुंकुमार्चन भी करते हैं यानी ललिताम्बिका के चरणों में कुंकुम अर्पण करते हैं। कुलाचारों में अपने कुलदेवता का कुंकुमार्चन करना यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है।अपने कुलदेवता के कुलाचार सुव्यवस्थित रूप से हों, ऐसी हर एक की इच्छा रहती है। लेकिन कुछ लोगों को ‘उनके कुलदेवता कौन हैं’ यही पता नहीं होता है; वहीं, कुछ लोगों को आज की भागदौड़ की ज़िन्दगी में अपने मूल गाँव जाकर सभी कुलाचारों का पालन करने की इच्छा रहकर भी वह संभव नहीं होता। कई लोगों को यह डर सताते रहता है कि ‘कहीं कुलाचार पालन में हमसे कोई ग़लती तो नहीं हो रही’।

कुलेश्‍वरी ललिताम्बिका :

ललितासहस्रनाम में ललिताम्बिका का एक नाम ‘कुलेश्‍वरी’ यह है। ललिताम्बिका यह सबकी कुलदेवता है, सभी देवता उन्हीं में से उत्पन्न हुए हैं। तुलसीपत्र 1332 में बापु लिखते ैं - ‘भगवान श्रीत्रिविक्रम ने शृंगीप्रकाश और भृंगीप्रकाश को अपने गले लगाकर उनसे कहा, ‘‘हर एक श्रद्धावान को आदिमाता के, उसके नौ अवतारों के, उन दशमहाविद्याओं के और सप्तमातृकाओं के अनेक गुणों एवं कार्यों का अपने जीवन में परिचय होता रहता है और जिस मानव को जिस कार्यरूप का परिचय हो जाता है, वह उसकी ‘कुलदेवता’ बन जाती है और इसी कारण अनगिनत कुलदेवताएँ हैं; इसी प्रकार से नित्यशिव के अनेक रूपों का परिचय होता रहता है और वह विशिष्ट कार्यस्वरूप उस उस मानव का ‘कुलदेव’ बन जाता है।हर एक व्यक्ति की प्रकृति भिन्न भिन्न होती है। उसी तरह जितने व्यक्ति होते हैं, उतनी इस आदिमाता की विभूतियाँ होती हैं; और इसी कारण हर एक के कुलदेवता और कुलदेव ये मूलत: आदिमाता महिषासुरमर्दिनी और आदिपिता महादुर्गेश्‍वर ही होते हैं, इस में कोई भी संदेह नहीं है और इसे जो जानता है, वही पूर्ण श्रद्धावान होता है।’’तुलसीपत्र 1333 में बापु कहते हैं - भगवान श्रीत्रिविक्रम के मुख से निकले ज्ञानामृत के कारण सभी ऋषिगण आनन्दित होकर नाचने लगे। वहाँ पर उपस्थित प्रत्येक ऋषिकुमार भी आनन्द से मदहोश होकर नृत्य करने लगा।वे सभी ऋषि जल्लोष करते करते अपने मन में याद कर रहे थे, ‘अब तक कितनी बार हमें सामान्य जनों के द्वारा प्रश्‍न पूछे गये थे - हमारी कुलदेवता यह है या वह है? हमारी कुलदेवता और कुलदेव का एक-दूसरे से क्या नाता है? क्या कुलदैवत बदला जा सकता है? महिलाएँ पूछती थीं कि क्या हम हमारे मायके के कुलदेवता को भज सकती हैं? कोई पूछता था कि क्या कुलदेव या कुलदेवता बदले जा सकते हैं? कोई कहता था कि हमारी कुलदेवता कौन है यही हम नहीं जानते, फिर हम क्या करें?’और हमारे पास इनमें से एक भी प्रश्‍न का उत्तर नहीं था। आज ही हमें भी यह ज्ञात हो गया है कि सच क्या है;कि मणिद्वीपनिवासिनी महिषासुरमर्दिनी अष्टादशभुजा सप्तचक्रस्वामिनी जगदंबा यही सारे मानवों की मूल एवं आद्य कुलदेवता है और उसी का कारणरूप रहने वाला अर्थात् उसी का अभिन्न रूप रहने वाला त्रिगुणातीत महादुर्गेश्‍वर यही प्रत्येक मानव का मूल एवं आद्य कुलदेव है।’

नवरात्रि में ललिताम्बिका पूजन का महत्त्व :

तुलसीपत्र 1394 में बतायेनुसार ‘ललिताम्बिका सभी श्रद्धावानों की प्रत्यक्ष पितामही ही है’, ऐसा खुद स्वयंभगवान श्रीत्रिविक्रम ने कहा है।उस प्रसंग का वर्णन करते हुए बापु लिखते हैं - ‘सभी की सभी नौ नवदुर्गा, दशमहाविद्या, सप्तमातृका, 64 करोड़ चामुण्डा वहाँ पर उपस्थित हो गयीं और फिर वे सभी एक के बाद एक करके आदिमाता महिषासुरमर्दिनी के रोम रोम में प्रविष्ट हो गयीं और इसी के साथ मणिद्वीपनिवासिनी आदिमाता की तीसरी आँख से एक ही समय पर प्रखर एवं सौम्य रहनेवाला ऐसा अपूर्व तेज सर्वत्र फैलने लगा और उसी के साथ आदिमाता के मूल रूप के स्थान पर उसका ललिताम्बिका स्वरूप दिखायी देने लगा।ललिताम्बिका ने प्रकट हो जाते ही सभी को अभयवचन दिया, ‘‘जो नवरात्रि के अन्य दिनों में नवरात्रिपूजन कर सकता है और जो नवरात्रि के अन्य दिनों में नवरात्रिपूजन नहीं कर सकता, ऐसे सभी के लिए ललितापंचमी के दिन मेरे महिषासुरमर्दिनी स्वरूप का मेरे लाडले बेटे के साथ किया गया पूजन यह नवरात्रि-पूजन का संपूर्ण फल उस उस व्यक्ति के भाव के अनुसार दे सकता है।’नवरात्रि में ललिताम्बिका पूजन करने का महत्त्व इस विवेचन से हम जान सकते हैं। ललितापंचमी के दिन, नवरात्रि के अन्य किसी दिन पर यह ललिताम्बिका पूजन करना श्रेयस्कर ही है, लेकिन अगर किसी कारणवश इस कालावधि में यह पूजन करना संभव नहीं हुआ, तो अन्य किसी दिन भी यह पूजन अवश्य करें, ललिताम्बिका पूजन में सकल मातृशक्तियों का यानी नवदुर्गा, दशमहाविद्या, सप्तमातृका, 64 कोटि चामुण्डा, कुलदेवता इन सबका पूजन हो जाता है।

रक्षणकर्ती ललितम्बिका :

तुलसीपत्र 1350 में बापु ने बतायेनुसार, ‘श्रीयंत्र व्यूहरचना की प्रमुख सेनापति माता शिवगंगागौरी ‘दंडनाथा’ स्वरूप में होकर, सभी ‘देवी’स्वरूप, ‘भक्तमाता’ स्वरूप (पार्वती, सरस्वती, लक्ष्मी), दशमहाविद्या तथा विभिन्न ‘कुलदेवता’ रूप आदिमाता जगदंबा की सेना में विभिन्न कार्यों की, अपने अपने सामर्थ्य के अनुसार श्रेष्ठ अथवा कनिष्ठ अधिकारी हैं।इस सारी सेना की सम्राज्ञी होनेवाली आदिमाता के स्वरूप को ‘ललिताम्बिका’ यह नाम है और उसकी यह सारी सेना हमेशा श्रद्धावान की रक्षा के लिए तत्पर रहती है। उचित समय पर इस सेना की उचित शक्ति को ‘देवता’ के रूप में श्रद्धावान की सहायता के लिए भेजा जाता है।अब प्रश्‍न यह उपस्थित हो सकता है कि कोई मानव श्रद्धावान तो है; लेकिन उसे श्रीयंत्र की जानकारी नहीं है और परिचय भी नहीं है। फिर उसका क्या होगा?ऐसे श्रद्धावान के लिए आदिमाता के ‘अष्टादशभुजा’स्वरूप के दर्शन तथा पूजन को ही ‘श्रीयंत्रपूजन’ माना जाता है और उचित समय पर उसे भी श्रीयंत्र की प्राप्ति होती ही है।’

श्रीललिताम्बिकायै नम:

उपरोक्त अध्ययन से हमारी समझ में आ जाता है कि ललिताम्बिका और उसकी सेना श्रद्धावानों की रक्षा के लिए तत्पर और समर्थ है। ललिताम्बिका की सेना के सामने कोई भी आसुरी वृत्ति, बुरी ताकत तिनके समान है।ललिताम्बिका श्रद्धावान को इहलोक का सौख्य प्रदान कर, उसके जीवन की, प्रगति के बीच आनेवालीं सभी प्रकार की बाधाओं को दूर करके, उचित कामनाओं को पूरा करके, उसी समय उसका आध्यात्मिक विकास कराने में भी समर्थ है। ऐसी इस ललिताम्बिका का पूजन करने का सुअवसर सद्गुरुकृपा से हमें उपलब्ध हुआ है।सभी प्रकार की अपवित्रता का, अशुभ का नाश करनेवाला, जीवन की सभी प्रकार की बाधाओं को निवारण करनेवाला, सभी प्रकार की मंगल कामनाओं को पूरा करनेवाला, मणिद्वीपनिवासिनी अष्टादशभुजा जगदंबा की छत्रछाया प्राप्त करा देनेवाला ऐसा यह श्रीललिताम्बिका पूजन है ऐसी श्रद्धावानों की धारणा है।तुलसीपत्र 1387 में बापु लिखते हैं, जिससे हमें ज्ञात होता है कि ‘हर एक को खुद के अंदर की आसुरी वृत्ति के साथ युद्ध करना ही पड़ता है और कोई भी युद्ध ललिताम्बिका की कृपा के बिना विजयी हो ही नहीं सकता।ललिताम्बिका’ यह स्वरूप युद्धकर्त्रा यानी युद्ध करनेवाला भी है तथा शान्तिकर्त्रा यानी शान्ति करनेवाला भी है।हमारे जीवन में हमें हमारे दुष्प्रारब्ध के खिलाफ़ अगर युद्ध जीतना है और जीवन में शान्ति, तृप्ति, सन्तोष, आनन्द इनकी प्राप्ती करनी है, तो हमें ललिताम्बिका की कृपाछत्रछाया में रहना ही होगा।
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Aniruddha Premsagar
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