’रामा रामा आत्मारामा त्रिविक्रमा सद्गुरुसमर्था
सद्गुरुसमर्था त्रिविक्रमा आत्मारामा रामा रामा’
श्रद्धावानों के जीवन में पड़ने वाला भगवान का कदम है ‘स्वयंभगवान का मंत्रगजर’।
स्वयंभगवान श्रीत्रिविक्रम का सर्वश्रेष्ठ, सर्वहितकारी, मंगलधाम, सुखधाम है त्रिविक्रम का मन्त्रगजर।
स्वयंभगवान का मंत्रगजर यह भक्तिभाव चैतन्य का प्राण है। यह मंत्रगजर अनंत ऐश्वर्यों से युक्त, अनगिनत सामर्थ्यों से संपन्न और अपरंपार गति से अनिरुद्ध है और इस मंत्रगजर का भजन श्रद्धावान को, यहाँ तक कि अत्यधिक पापी रहने वाले श्रद्धावान को भी दोषरहित करनेवाला है।
इस मन्त्रगजर से स्वयंभगवान का नाम श्रद्धावान की हर एक कोशिका (सेल) में प्रवेश करता है, हर एक ग्रन्थी (ग्लँड) में प्रवेश करता है, प्रत्येक विचार में प्रवेश करता है, प्रत्येक भावना में प्रवेश करता है, प्रत्येक अनैच्छिक क्रिया (Involuntary Action)में भी प्रवेश करता है; इतना ही नहीं, बल्कि उस श्रद्धावान के काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर इन षड्-रिपुओं में भी प्रवेश करता है और यह मन्त्रगजर इन षड्-रिपुओं को ही, इस संबंधित श्रद्धावान के जीवन में अच्छे कार्यों के लिए उपयोग में लाते रहता है।
स्वयंभगवान के मंत्रगजर को मुख में, मन में, अंतरंग में रखते हुए जो कुछ भी किया जाता है, वह चाहे कितना भी गलत क्यों न हो, मग़र फिर भी वह धीरे धीरे शुभ, हितकारी और मंगल बनता जाता है।
‘भक्तिभाव चैतन्य’ में इस मन्त्रगजर का स्थान सर्वोच्च है।
भक्तिभाव चैतन्य में त्रिविक्रम का मंत्रगजर यह तो सर्वश्रेष्ठ भजन है और इसी लिए भगवत्भजन के बिना भक्तिभाव चैतन्य अधिक खिल नहीं सकता।
इस भक्तिभाव चैतन्य में ‘स्वयंभगवान का मंत्रगजर’ यह सर्वोच्च मंत्र माना जाता है। क्योंकि इसकी रचना दत्तभगिनी शुभात्रेयी द्वारा की गयी है।
प्रत्येक मानव के इष्टदेवता का नाम इस मन्त्रगजर में समाविष्ट ही है। किसी भी देवता का नाम यह अन्त में ‘केशव’ का नाम है। (‘सर्वदेवनमस्कारः केशवं प्रतिगच्छति’) ‘केशव’ यानी आकृति के परे होने वाले और इसके बावजूद भी आकृति में होने वाले; और ‘केशव’ यह मूल स्वयंभगवान का ही नाम है। वही राम है और वही कृष्ण है। वही शिव है और वही विष्णु है।
स्वयंभगवान के जीवित अस्तित्व का और रसपूर्ण प्रेम का एहसास अखंड रूप से मन और बुद्धि में रहना यह सामान्य मानव के लिए संभव नहीं हो सकता। परन्तु भक्तिभाव चैतन्य का यह मन्त्रगजर अत्यधिक प्रेमपूर्वक करते रहने से, थोड़ा सा जाप भी विशाल बन जाता है और खंडित स्मरण भी अखंड बन जाता है।
जो श्रद्धावान इस मंत्रगजर की प्रतिदिन १६ मालाएँ, कम से कम ३ वर्षों तक करता है, उस श्रद्धावान के विशुद्ध चक्र के (कंठकूप चक्र के) सभी के सभी सोलह दल शुद्ध हो जाते हैं अर्थात् उसका विशुद्ध चक्र ‘हनुमत् चक्र’ बन जाता है। फिर किसी भी जन्म में वह सुख से जन्म लेता है, आनंद से जीवन व्यतीत करता है और आनंद में ही विलीन हो जाता है।
जिसे प्रतिदिन १६ मालाएँ करना संभव नहीं होगा, वह अपनी क्षमता के अनुसार ‘गिनती न करते हुए’ (जाप की गिनती न करते हुए) इस मंत्रगजर को करता रहे और उस जाप को ‘उस’के चरणों में अर्पण करता रहे - इस प्रकार से करने वाले श्रद्धावान का जीवन भी सुंदर होता ही रहेगा।
इस मंत्रगजर से भक्तिभाव चैतन्य की लहरें उठती रहती हैं और जिस किसी को स्वयं का जीवन उत्तम बनाना है, उसे सभी बातों की आपूर्ति की जाती है।
स्वयंभगवान का मंत्रगजर यही शांति और संतोष प्राप्त करने का एकमात्र मंत्र है। जिसका जन्म हुआ है, उसके जीवन में मुश्किलें, प्रश्न, दुख और संकट आते ही रहते हैं; परन्तु ऐसी विपदाओं में से समर्थ रूप से बाहर निकलने के लिए भी यह मंत्रगजर ही सर्वसमर्थ है।