परमेश्वर दत्तगुरु और आदिमाता जगदंबा के भक्तिभाव चैतन्य में निरन्तर रहनेवाले सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापु (डॉ. अनिरुद्ध धैर्यधर जोशी) ने इसवीसन १९९६ से विष्णुसहस्रनाम, ललितासहस्रनाम, राधासहस्रनाम, रामरक्षा, श्रीसाईसच्चरित ऐसे कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर प्रवचन करना शुरू किया।
दुनियाभर के अनगिनत श्रद्धावानों के लिए बापु ‘सद्गुरु’ स्थान में हैं। स्वयं एक आदर्श गृहस्थाश्रमी होनेवाले बापु, गृहस्थी में रहकर भी परमार्थ की प्राप्ति की जा सकती है, यह स्वयं के आचरण से सीखाते हैं।
बापु की छात्रदशा से लेकर आज तक बापु अपने श्रद्धावान मित्र, आप्त और साथ ही, पीडितों एवं उपेक्षितों के जीवन के दुख, कष्ट और अन्धकार दूर करने के लिए, उनके विकास के लिए अथक प्रयास कर ही रहे हैं; और यही उनका जीवनयज्ञ है।
बापु के संपर्क में आनेवाले सभी व्यक्तियों को महसूस होनेवाली अहम बात यानी ‘बापु का अनेकविध क्षेत्रों से होनेवाला संबंध, उनकी उन क्षेत्रों में होनेवाली महारत, निपुणता और उन क्षेत्रों के एक्स्पर्ट्स (विशेषज्ञों) को भी अचंभित कर देनेवाला अथाह ज्ञान।
डॉ. अनिरुद्ध धैर्यधर जोशी (एम. डी. - मेडिसीन, हृमॅटॉलॉजिस्ट) की वैद्यकीय प्रॅक्टिस के दौरान कइयों का उनके साथ क़रीबी से संबंध आया।
परेलगाँव, लालबाग, शिवडी इन जैसे गिरणगाँव के कष्टकरी तथा श्रमजीवी क्लास को, साथ ही रत्नागिरी-संगमेश्वर, चिपळूण आदि ग्रामीण इलाक़े के किसान वर्ग को अत्यल्प फ़ीस् में या कभी कभी तो कुछ भी फ़ीस् न लेते हुए ही ये डॉक्टर ट्रीटमेंट देते थे।
बीमारी का अचूक निदान (डायग्नॉसिस), स्पष्टतापूर्वक मत, कभी सख़्त रवैया; अपने व्यवसाय के साथ प्रामाणिक रहकर, दरअसल व्यवसाय से परे जाकर सभी स्तरों के मरीज़ों एवं सहकर्मियों के साथ जोड़ा हुआ अपनेपन का नाता सँभालनेवाले इन डॉक्टर के विलक्षण, असामान्य व्यक्तित्व की झलक सभी ने देखी।
ये हैं बापू से जुड़ीं यादें| जिन्होंने भी बापू के शालेय जीवन से लेकर वैद्यकीय प्रॅक्टिस तक की अवधि में बापू को करीब से देखा, अनुभव किया और जाना ऐसे बापू के अध्यापक, सहपाठी, मित्र, पड़ोसी, पेशंट्स् और उनके परिजन, जिन्हें बापू के अनोखे विलक्षण, असामान्य व्यक्तित्व की झलक को अनुभव करने मिला, उसका साक्षी होने का अवसर मिला, उनकी ये यादें हैं| बापू के बारे में रहने वालीं इन यादों का संग्रह है, ‘मैंने देखे हुए बापू’ यह पुस्तक. और पढीए
डॉ. अनिरुद्ध धै. जोशी ने, ‘दैनिक प्रत्यक्ष’ में ५ नवम्बर, २००६ को प्रकाशित हुए ’मी अनिरुद्ध आहे’ इस अग्रलेख में लिखा था,
"आसपास के मानव और परिस्थिति चाहे किसी भी प्रकार की हों, मैं वैसा ही रहता हूँ।
क्योंकि मैं सदैव वर्तमानकाल में ही रहता हूँ और वास्तव का भान कभी भी छूटने नहीं देता।
भूतकाल का एहसास और स्मृति केवल वर्तमानकाल में अधिक से अधिक सभानता प्राप्त होने के लिए जितनी आवश्यक है उतनी ही; और भविष्यकाल का निरीक्षण वर्तमानकाल में सावधान रहने के लिए जितना आवश्यक है उतना ही, यह मेरी वृत्ति है।"
इसी वृत्ति का अनुसरण कर डॉ. अनिरुद्ध ने जागतिक गतिविधियों का अध्ययन कर, भारतीय समाज को चौकन्ना, सक्षम तथा सुसज्जित बनाने के लिए ‘दैनिक प्रत्यक्ष’ में ’तिसरे महायुद्ध’ (तृतीय विश्वयुद्ध) यह अग्रलेखों की मालिका सन २००६ में लिखी, जो बाद में मराठी, हिन्दी और अँग्रेज़ी भाषा में पुस्तक रूप से भी प्रकाशित हुई।
सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी के जीवनप्रवास में एक बात ‘नित्य’, ‘शाश्वत’ है और वह है - ‘बापु तथा बापु का बिना लाभ के प्रेम’। इस बिना लाभ के प्रेम के कारण ही बापु ने अपने श्रद्धावान मित्रों के लिए ‘स्वस्तिक्षेम तपश्चर्या’ की।
आध्यात्मिक आधार मज़बूत होने हेतु नियमित रूप से उपासना करते रहना मानव के लिए आवश्यक है; लेकिन आज के भागदौड़भरे जीवन में सदैव सता रहीं चिन्ताओं के कारण, हर एक से वे उपासनाएँ नित्यनियमित रूप में होती ही हैं ऐसा नहीं। अपने श्रद्धावान मित्रों के जीवन में होनेवाली इस कमी को पहचानकर, उस कमी को पूरा करने के लिए सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी ने सन २०११ की आश्विन नवरात्रि के आरंभ से यानी २८ सितम्बर २०११ से स्वस्तिक्षेम तपश्चर्या की शुरुआत की।
सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी की यह ‘स्वस्तिक्षेम तपश्चर्या’ दिनरात अव्याहत रूप से जारी ही थी। इस तपश्चर्याकाल में बापु का ‘स्व’ का भान खो जाकर, वे पूर्णत: माँ चण्डिका के अनुसंधान में थे। सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी की तपश्चर्या तीन प्रकार से हुई -
१) आदिमाता चण्डिका के ‘ब्रह्मत्रिपुरसुन्दरी’ स्वरूप की उपासना, २) बला-अतिबला उपासना और ३) सावित्री विद्या की उपासना तथा ‘श्रीविद्या’ उपासना। बापु की तपश्चर्या के लिए ’श्रीअनिरुद्ध गुरुक्षेत्रम्’ में ’विषम-अष्टास्त्रम’ यह विशेष यज्ञकुंडस्थल बनवाया गया था, जिसमें बापु ने विशिष्ट हवनद्रव्य अर्पण किये।
श्रीहरिगुरुग्राम में अपने प्रवचनों के बाद उपस्थित श्रद्धावानों को नमस्कार करनेवाले बापू स्वयं सदैव
‘‘मैं श्रद्धावान भक्तों का सेवक हूँ’
इसी भूमिका में होते हैं।
‘श्रीमद्पुरुषार्थ’ ग्रन्थराज प्रथम खण्ड ‘सत्यप्रवेश’ में बापु ने कहा है -
‘परमेश्वरी तत्त्वों पर नितांत प्रेम एवं अविचल श्रद्धा रखनेवाले हर एक जन का मैं दास हूँ।’
उसी प्रकार, ग्रन्थराज में बापु कहते हैं -
मैं योद्धा हूँ और जिस-जिसको अपने प्रारब्ध से लड़ना है, उन्हें युद्धकला सीखाना, यही मेरा शौक है।
मैं तुम्हारा मित्र हूँ।
सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के पंचगुरु
सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध द्वारा लिखित ‘श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज’ द्वितीय खण्ड ‘प्रेमप्रवास’ में उन्होंने अपने पंचगुरुओं का वर्णन किया है, जो संक्षेप में इस प्रकार है।
दत्तगुरु (परमेश्वर) (करविता गुरु)
परमेश्वर यानी स्वयंसिद्ध एवं स्वयंप्रकाशी चेतनतत्त्व। श्रद्धावान इसे ही ‘दत्तगुरु’ संबोधित करते हैं। सद्गुरु श्री अनिरुद्ध के पंचगुरुओं में से प्रथम गुरु यानी ‘दत्तगुरु’; अर्थात् सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के आनन्दमय कोश के स्वामी एवं उनके करविता (करानेवाले) गुरु। श्रीसाईसच्चरित की इस ओवी का सन्दर्भ देकर सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध ने दत्तगुरु के महत्त्व को अधोरेखित किया है।
दत्तासारिखें पूज्य दैवत । असतां सहज मार्गी तिष्ठत ।अभागी जो दर्शनवर्जित । मी काय पावत तयासी ॥
श्रीसाईनाथजी के ये शब्द ही सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के जीवनकार्य की दिशा तथा श्रीगुरुदत्त के चरणों के प्रति होनेवाली उनकी (सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध की) अविचल निष्ठा है।
गायत्री (आदिमाता) (वात्सल्यगुरु)
गायत्री’ यही उन महन्मंगल आदिमाता का प्रथम स्वरूप है, आद्यस्वरूप है। गायत्री स्वरूप यह सदैव तरल स्तर पर से ही कार्यरत रहता है। सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध की द्वितीय गुरु यानी उनके विज्ञानमय कोश की स्वामिनी श्रीगायत्रीमाता, यही उनकी वात्सल्यगुरु हैं। परब्रह्म की ‘मैं परमेश्वर हूँ’ यह आत्मसंवेदना ही परमेश्वरी, आदिमाता हैं। इन्हीं को वेदों ने ‘गायत्रीमाता’ यह नामाभिधान दिया है। इस गायत्रीस्वरूप की कृपा से ही मनुष्य को किसी भी ज्ञान-विज्ञान की प्राप्ति होती रहती है और उपयोगी भी सिद्ध होती रहती है।
राम (कर्ता गुरु)
सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के तृतीय गुरु अर्थात् प्रभु श्रीराम ही उनके मनोमय कोश के स्वामी एवं कर्ता गुरु हैं और रामचरित्र ही मर्यादापालन का प्रात्यक्षिकहै।
श्रीराम ही ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ नाम से जाने जाते हैं।
हनुमंत (रक्षक गुरु)
सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के चतुर्थ गुरु अर्थात् श्रीहनुमंत ही उनके ‘रक्षकगुरु’ अर्थात् अद्वितीय मर्यादारक्षक हैं। सद्गुरु अनिरुद्ध के प्राणमय कोश के स्वामी और उनके रक्षक गुरु श्रीहनुमानजी अपने आप को प्रभु रामचन्द्रजी का दास कहलाने में ही धन्यता मानते हैं और श्रीअनिरुद्ध उन हनुमानजी का दासानुदास कहलवाने में ही अपने जीवनकार्य की इतिकर्तव्यता मानते हैं। ‘मर्यादित से अमर्यादित अनंतत्व’, ‘भक्त से ईश्वरत्व’ का प्रवास करनेवाले श्रीहनुमंत ही एकमात्र हैं।
साई समर्थ (दिग्दर्शक गुरु)
सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के पंचम गुरु साईसमर्थ ही सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के अन्नमय कोश के स्वामी और उनके दिग्दर्शक गुरु हैं। श्रीसाईसच्चरित की कई ओवियों में से अभिव्यक्त होनेवाली श्रीसाई की विनम्रता, लीनता, शालीनता और उच्च निरभिमानता इनका संदर्भ देकर सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध ‘श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज’ द्वितीय खण्ड ‘प्रेमप्रवास’ (पृष्ठ क्र. ३६५) में कहते हैं, ‘मेरे अन्नमय कोश के स्वामी और मेरे दिग्दर्शक गुरु साईसमर्थ यदि इस तरह अपने भाव प्रकट करते हैं, तो फिर ‘मैं कोई श्रेष्ठ हूँ’ यह कहने का नाममात्र का भी अधिकार मुझे नहीं है, ऐसा मैं निश्चित रूप से मानता हूँ।’