३) ‘श्रद्धा’ क्या है?

उत्तर – जब आस्तिक्यबुद्धि जीवात्मा के मूल स्थान की जानकारी हासिल कर लेती है और उस प्रयत्न में आसपास के विश्‍व का अध्ययन करती है, तभी इस परमात्मा के सत्य, प्रेम एवं आनंद इन तीन मूल गुणों की पहचान होती है, विश्‍व की प्रत्येक क्रिया एवं प्रतिक्रिया में इस त्रिसूत्री का अनुभव होने लगता है।

यही (परमेश्वर) इस संपूर्ण जगत् के एकमात्र कर्ता एवं करानेवाले हैं, इस बात का दृढ़ निश्‍चय होता है। वही श्रद्धा है।

सामान्य मानव भी ‘चिंतन’, ‘मनन’, ‘शोध’ (अनुसंधान) इत्यादि बड़े-बड़े शब्दों का ज्ञान न होने पर भी स्वयं के व्यावहारिक अनुभवों एवं दैनिक जीवन में होने वाले प्रसंगों से निर्माण होनेवाले एहसास के द्वारा ही ‘श्रद्धा’ सीखता है, स़िर्फ कोई मन पर अंकित करता है, बार बार ज़ोर देकर कहता है, इससे श्रद्धा उत्पन्न नहीं होती। इस जन्म में सहजता से श्रद्धाभाव का निर्माण होना, यह मेरे पूर्वजन्म की श्रद्धा का अपरिहार्य परिणाम होता है।

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