उत्तर – काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर ये षडरिपु ही प्रत्येक मनुष्य के पूर्णता के स्वप्न को साकार न होने देने वाले छह शत्रु हैं।
क्रोध के कारण मनुष्य अपना आपा खो बैठता है। और फिर कई बार केवल एक क्रोध के आवेश में आकर की गई ग़लती का प्रायश्चित्त करने में संपूर्ण लौकिक जीवन बरबाद हो जाता है।
मुझे क्रोध आते रहता है, किसी न किसी कारणवश, ऐसा हम सभी को लगता है; इतना ही नहीं, बल्कि ऐसा हमें पूरा विश्वास होता है। परन्तु क्रोध मेरे मन में रहता है, बढ़ते ही रहता है। होता ऐसा है कि अपने लिए अनुकूल ऐसे किसी विशेष कारण से अवसर पाते ही वह उबलकर बाहर आ जाता है। ग़लत विचार, ग़लत आहार-विहार और ग़लत अपेक्षाओं के कारण ही मन में स्थित क्रोध पनपते रहता है और मज़बूत होते जाता है।
क्रोध यह सबसे अधिक प्रभावकारक और पल भर में विनाश कर देने वाला भस्मासुर ही है।
अन्याय के प्रति तिलमिला उठना यह ज़िन्दादिली का लक्षण हैं। परन्तु छोटे-छोटे कारणों से मन ही मन में या ज़ाहिर रूप से ग़ुस्से से पेश आना यह मेरे स्वयं के लिए ही अधिक हानिकारक होता है। मेरे अत्यधिक नाराज़ हो जाने के कारण और नाराज़गी कम करने का प्रयत्न न करने के कारण शरीर की अनेक रासायनिक क्रियाओं पर उसका दुष्परिणाम होता है और वह बहुत समय तक स्थिर रहता है। उच्च रक्तचाप (High Blood Pressure), जठरव्रण (Peptic Ulcer), अम्लपित्त (Acidity), हृदयविकार (Heart Disease), संधिगतवात (Arthritis), दमा (Bronchial Asthama) इत्यादि अनेक रोग क्रोध को बढ़ावा देने से ही बढ़ते हैं, यही बात आधुनिक वैद्यकशास्त्र भी हमसे कहता है। क्रोध के कारण महाप्राण का मन पर रहनेवाला नियंत्रण भी क्षीण हो जाता है। अर्थात् मेरे मन पर रहने वाला परमेश्वरी अंकुश इस क्रोध के कारण ढीला पड़ जाता है। अर्थात् क्रोध मेरे भक्तिमार्ग के प्रवास में भी बाधा डालता है।