उत्तर – भक्तिभाव चैतन्य में रहने के कारण उद्धरण का मार्ग खुला हो जाता है और थोड़ी प्रतीक्षा के बाद भक्त पापमुक्त हो जाता है। यानी भक्तिभाव चैतन्य में रहने के कारण ‘कर्म के अटल सिद्धान्त’ का प्रभाव नष्ट होने में मदद मिलती है।
पाप का पापत्व और पुण्य का पुण्यत्व इन दोनों बातों से वह स्वयंभगवान अलिप्त होता है। यह स्वयंभगवान केवल भक्तिभाव चैतन्य में ही लिप्त हो जाता है। स्वयंभगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता के ९वें अध्याय के ३० वें श्लोक में सुस्पष्ट रूप से कहा है – ‘यदि कोई अत्यन्त दुराचारी मेरा अनन्यभाव के साथ भजन करता है, तो उसने बहुत अच्छे से भक्ति का निश्चय किया है इस कारण से उसे पवित्र ही मानना चाहिए।’
सद्गुरु वह स्वयंभगवान स्वयं एक ही एक है और शुभात्रेयी द्वारा किया गया उसका मन्त्रगजर ऐसे सुदुराचारियों को अर्थात् जो अत्यन्त एवं सर्वथा दुराचारी हैं, जिन्होंने पापों की अन्तिम मर्यादा को लाँघ दिया है, जिन्होंने कोई भी पाप करने का बाकी नहीं रखा है ऐसे मूढ़ों को भी भक्तिभाव चैतन्य में प्रवेश करने पर पापहीन कर देता है।