उत्तर – मानव का मन भले ही भगवत्-परायण बन जाये, परन्तु जब तक उसे शरीर का साथ नहीं मिलता, तब तक मन निश्चल नहीं बन सकता और चंचल मन निरंतर भगवत्-परायण नहीं रह सकता; और इसीलिए जहाँ कहीं भी मन चंचल एवं दुर्बल बन सकता है, वहाँ पर इस प्रकार की उपासनाएँ शरीर और बुद्धि को मन से बाँधकर रखती हैं। पूजन आदि सभी बाह्य उपचार यह मानव के प्राणमय देह में स्थित ऊर्जाकेंद्रों को समर्थ एवं शुद्ध बनाने के विभिन्न मार्ग हैं।
जब तक देह है, तब तक श्रद्धावान को भजन, पूजन, अर्चन, हवन, तीर्थयात्रा, व्रत आदि बाह्य-उपचारों की आवश्यकता है ही।