उत्तर – दास्यभक्ति का अर्थ याचना, लाचारी, परतन्त्रता, परावलम्बित्व या दुर्बलता नहीं, बल्कि ‘मेरे स्वामी जितने समर्थ हैं, उतना ही समर्थ मैं भी बनूँगा’, यह इच्छा रखकर उनके चरणों में रहकर विनम्रता से उनके सभी नियमों से स्वयं को बाँध लेनाही दास्य भक्ति का वास्तविक अर्थ है।
परमेश्वर के प्रेम, निर्भयता और पावित्र्य इस त्रिवेणी संगम का दास्यत्व स्वीकार करनाही परमात्मा का दास्यत्व है।
दास्यभक्ति अर्थात् सम्पूर्ण शरणागति। बिल्कुल भगवान श्रीकृष्ण के कहेनुसार,
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
भगवान कहते हैं, ‘‘हे मानव, तुम सभी गुणधर्मों को छोड़कर सिर्फ मेरी शरण में आजाओ। मैं तुम्हें पूर्ण पापमुक्त करके सर्वोच्च स्थान प्रदान करूँगा।’’
हर एक कर्म करते समय प्रथम परमेश्वर का विचार करना, यह दास्यभक्ति की पहली शर्त है।
हर एक कर्म परमेश्वर के लिए ही करना, यह दास्यभक्ति की दूसरी शर्त है।
परमेश्वर मेरी इच्छाओं को पूरी करेंगे इस विचार का त्याग करके, परमेश्वर मेरे जीवन के लिए जो उचित है वही करेंगे, यह दृढ़निश्चय रखना ही दास्यभक्ति की तीसरी शर्त है।
मेरी सेवा-भक्ति का फल मैं नहीं माँगूँगा। उन्हें जो कुछ देना होगा, वे देंगे। उसीमें ही मैं आनन्दपूर्वक रहकर उनकी अधिक से अधिक सेवा किस प्रकार कर सकता हूँ, बस इसी सोच के साथ जीवन में क्रियाशील रहना यही दास्यभक्ति की चौथी शर्त है।
मेरे ‘किन्तु’ ‘परन्तु’ और मेरी ‘शर्ते’ खत्म होने के पश्चात् ‘सुख मिलेे या दुख, लेकिन मुझसे आप अपना कार्य करवा लीजिए’ यही तीव्र और सच्ची इच्छा ही इस दास्यभक्ति की पाँचवी शर्त है।
भगवान की सेवा और प्रेम में ही अधिकाधिक आनन्द प्राप्त होने लगता है और फिर गृहस्थी तथा पारमार्थिक दृष्टि से जीवन वास्तविक रूप से सम्पन्न होने लगता है। इस गृहस्थ जीवन की सम्पन्नता मुझे दास्यत्व से दूर न ले जाए, उसी प्रकार परमार्थ से प्राप्त होनेवाली उन्नति के कारण कहीं मेरे अहंकार की वृद्धि न हो, इस बात का ध्यान रखना यह दास्यभक्ति की छठी शर्त है।
हनुमानजी के आचरण को ही एकमात्र आदर्शमार्ग और भरतजी के आचरण को ही एकमात्र दिग्दर्शक यन्त्र मानकर जीवनयात्रा करना ही दास्यभक्ति की सातवी और सबसे महत्त्वपूर्ण शर्त है।