३२) ‘मैं स्वयंभगवान का अंश हूँ अर्थात मेरा जीवात्मा उस स्वयंभगवान का ही एक अंश है और ‘स्वयंभगवान’ अंशी है’ ऐसा मानने से क्या होता है?

उत्तर – ‘मैं’ भगवान में हूँ, मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हृदय में है, भगवान के प्रेम में ही मैं सुख से जी सकता हूँ, यह शाश्‍वत सत्य जब मानव भूल जाता है और भगवान का आधार केवल आवश्यकता के लिए ही लेता रहता है, तब उस मानव की स्थिति समुद्र से अलग पड़ चुकी एक बूँद की तरह हो जाती है – वह बूँद अर्थात् जीवात्मा अर्थात् वह मानव यत्किंचित् अर्थात् अल्प बन जाता है और कुछ न कर सकते हुए ज़मीन में घुसकर कीचड़ बन जाता है।

समुद्र से अलग पड़ चुकी बूँद जब सूर्य की उष्मा से भाप बनकर आकाश में जाती है और पर्जन्य (बारिश) की बूँद बनकर पुन: सागर में आ मिलती है, तब ‘उस बूँद को’ संपूर्ण सागर का सामर्थ्य प्राप्त होता है अर्थात् उस बूँद को अब समूचे समुद्र का समर्थन मिलता है।

उसी प्रकार मानव जब हमेशा इस बात का एहसास रखता है कि ‘मैं उस अनंत एवं अथाह ऐसे स्वयंभगवान का अंश हूँ,’ तब उसे उस भगवत्-समुद्र से सभी बातों की आपूर्ति की जाती है।

‘मैं भगवान का अंश हूँ’ यानी मैं भगवान से अलग नहीं हुआ हूँ, इस सच को जीवन में उतारने का सर्वश्रेष्ठ और अत्यधिक सरल, आसान मार्ग है भक्तिभाव चैतन्य।

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